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गेहूँ की खेती कब और कैसे करें (GehuKi Kheti Kese Karen)

Rajendra Suthar, February 24, 2024February 24, 2024

गेहूँ भारत का प्रमुख खाद्यान है , गेहूँ उत्पादन में हमारे देश का प्रमुख स्थान है। भारत देश आज 8 करोड़ टन से अधिक गेहूँ का उत्पादन कर रहा है। हालांकि, देश की बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए गेहूँ उत्पादन में वृद्धि की और अधिक आवश्यकता है। इसके लिए गेहूँ की उन्नत उत्पादन प्रौद्योगिकियों को अपनाने की आवश्यकता है। इन प्रौद्योगिकियों में प्रजातियों का चुनाव, बोने की विधियां, बीज दर, पोषक तत्व प्रबंधन, सिंचाई प्रबन्धन, खरपतवार नियन्त्रण तथा फसल संरक्षण आदि प्रमुख हैं।

गेहूँ की खेती के लिए किस्मों का चयन

गेहूँ अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए अच्छी किस्मों का चुनाव करना बहुत आवश्यक है। किसानों को अनुमोदित किस्मों को बुवाई के समय और उत्पादन स्थिति के हिसाब से लगाना चाहिए। समय से बुवाई वाली किस्मों को देरी की अवस्था में या देरी से बुवाई वाली किस्मों को समय से बोने पर उपज में कमी हो सकती है।

उत्तर- पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के लिए किस्मों का चयन:-

सिंचित क्षेत्र (समय पर बुवाई) – इसके अन्तर्गत एच डी 2967, यू पी 2382, एच यू डब्ल्यू 468, एच डी 2888, एच डी 2733, के 307 (शताब्दी), डब्ल्यू एच 542, डब्ल्यू एच 1105, एच डी 2964, डी पी डब्ल्यू 621-50, पी बी डब्ल्यू 550, पी बी डब्ल्यू 17, पी पी बी डब्ल्यू 502, एच डी 2687, पी डी डब्ल्यू 314 (कठिया), डब्ल्यू 291 (कठिया), पी डी डब्ल्यू 233 (कठिया), एवं डब्ल्यू एच 896 (कठिया) किस्मों को शामिल किया गया है।

सिंचित क्षेत्र (देर से बुवाई) – इसके अन्तर्गत पी बी डब्ल्यू 590, डब्ल्यू एच 1021, पी बी डब्ल्यू 16, पी बी डब्ल्यू 373, एच यू डब्ल्यू 510, के 9423, के 9423, (उन्नत हालना), के 424 (गोल्डन हालना), इत्यादि किस्मों को शामिल किया गया है।

वर्षा आधारित (समय से बुवाई) – इसके अन्तर्गत पी बी डब्ल्यू 396, के 8962, के 9465, के 9351, एच डी 2888, मालवीय 533 किस्मों को शामिल किया गया है।

लवणीय एवं क्षारीय क्षेत्र हेतु (सिंचित क्षेत्र, समय पर बुवाई) – इसके अन्तर्गत के आर एल 213, के आर एल 210, के आर एल 19, के 8434 किस्मों को शामिल किया गया है।

उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र के लिए किस्मों का चयन:-

सिंचित अवस्था में समय से बुवाई (10 नवम्बर से 25 नवम्बर) – एच. डी. 2733, एच. डी. 2824, राज 4120, पी. बी. डब्ल्यू, 443, एच, यू, डब्ल्यू, 468, के. 91072।

सिंचित अवस्था में देरी से बुवाई (25 नवम्बर से 25 दिसम्बर) – एच. डी. 2985, एच. आई. 1563′, एच. डी. 2643, डी बी. डब्ल्यू, 14, एच.डब्ल्यू 2045, एन. डब्ल्यू, 2036, हलना।

असिंचित अवस्था में समय से बुवाई – एच. डी. 2888, एच. डी. आर. 77, के. 8962, के, 9465 ।

मध्य क्षेत्र के लिए किस्मों का चयन:-

सिंचित अवस्था में समय से बुवाई (10 नवम्बर से 25 नवम्बर) – एच. आई. 8691′, जी. डब्ल्यू, 366, डी. डब्ल्यू, 273, एच. आई, 8498′, एच. आई. 8381′, एच. आई. 1531′, एच. आई. 8627।

सिंचित अवस्था में देरी से बुवाई (25 नवम्बर से 25 दिसम्बर) – एच. डी. 2864, एच, डी, 2932, एम. पी. 4010, डी. एल. 788-2

असिंचित अवस्था में समय से बुवाई – एच. डी. 4672′, एच. आई, 8627′, एच. आई. 1500′, एच. डब्ल्यू 2004, एच. आई. 1531।

उत्तर-पर्वतीय क्षेत्र के लिए किस्मों का चयन:-

सिंचित अवस्था में समय से बुवाई – एच.एस.507. एच.एस.490, बी.एल 738, वी, एल. 804, एच. एस. 240

असिंचित अवस्था में समय से बुवाई – वी. एल. 738. वी. एल. 804, एच. एम. 507

असिंचित अवस्था में देरी से बुवाई – एच. एस. 240. एच. एस, 420

लवणीय मृदाओं के लिए किस्मों का चयन:- के. आर. एल. 1. 4 व 19

गेहूँ की खेती के लिए जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता

गेहूँ की खेती के लिए समशीतोषण जलवायु की आवश्यकता होती है ताकि वायुमंडलीय दबाव के तहत यह अच्छी तरह से विकसित हो सके। गेहूं के लिए उचित तापमान 20°C से 25°C के बीच माना जाता है, जो इसकी अच्छी उगाई और उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, गेहूं की खेती के लिए अच्छी वर्षा की आवश्यकता होती है, लेकिन फसल के पकने के समय पर बारिश की अधिकता से बचाव किया जाना चाहिए, क्योंकि यह फसल के गिरने के खतरे को बढ़ा सकती है।

गेहूँ की खेती मुख्यत सिंचाई पर आधारित होती है गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में की जा सकती है। साधनों की उपलब्धता के आधार पर हर तरह की भूमि में गेहूँ की खेती की जा सकती है।

गेहूँ की खेती का समय

उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में सिंचित दशा में गेहूँ बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है। लेकिन उत्तरी-पूर्वी भागों में मध्य नवम्बर तक गेहूँ बोया जा सकता है। देर से बोने के लिए उत्तर-पश्चिमी मैदानों में 25 दिसम्बर के बाद तथा उत्तर-पूर्वी मैदानों में 15 दिसम्बर के बाद गेहूं की बुवाई करने से उपज में भारी हानि होती है। इसी प्रकार बारानी क्षेत्रों में अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बुवाई करना उत्तम रहता है। यदि भूमि की ऊपरी सतह में संरक्षित नमी प्रचुर मात्रा में हो तो गेहूं की बुवाई 15 नवम्बर तक कर सकते हैं।

गेहूँ की बुवाई की विधी

खेत की तैयारी- गेहूँ की फसल की बुवाई अधिकतर धान की फसल के बाद ही की जाती है, पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताईयां करके खेत को समतल करते हुए भुरभुरा बना लेना चाहिए, डिस्क हैरो से धान के ढूंठे काट कर छोटे छोटे टुकड़ों में परिवर्तित कर दे और इन्हें शीघ्र सड़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम यूरिया प्रति हैक्टर कि दर से पहली जुताई में अवश्य दे देनी चाहिए। इससे ढूंठे, जड़ें सड़ जाती हैं ट्रैक्टर चालित रोटावेटर से एक ही जुताई द्वारा खेत पूर्ण रूप से तैयार हो जाता है।

गेहूँ की खेती के लिए बीजो का चयन-गेहूँ की खेती के लिए बीज साफ, स्वस्थ एवं खरपतवारों से रहित होना चाहिए। सिकुड़े, छोटे एवं कटे-फटे बीजों को निकाल देना चाहिए। हमेशा उन्नत किस्म का चयन करना चाहिए।

बीज दर बीज दर दानों के आकार, जमाव प्रतिशत, बोने का समय, बोने की विधि एवं भूमि की दशा पर निर्भर करती है। सामान्यतः, यदि 1000 बीजों का भार 38 ग्राम है तो एक हेक्टेयर के लिए लगभग 100 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। यदि दानों का आकर छोटा या बड़ा है तो उसी अनुपात में बीज दर घटाई या बढ़ाई जा सकती है। इसी प्रकार सिंचित क्षेत्रों में समय से बुवाई के लिए 100 कि.ग्रा./हैक्टेयर बीज पर्याप्त होता है। लेकिन सिंचित क्षेत्रों में देरी से बोने के लिए 125 कि.ग्रा./ हैक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। लवणीय तथा क्षारीय मृदाओं के लिए बीज दर 125 कि.ग्रा./हैक्टेयर रखनी चाहिए। सदैव प्रमाणित बीजों का प्रयोग करना चाहिए और हर तीसरे वर्ष बीज बदल देना चाहिए। यदि गेहूँ की बुवाई करते समय अपने बीजो का प्रयोग करना हो तो 2.5 ग्रा, बाविस्टीन या थायरम से प्रति कि.ग्रा. बीज को बुवाई के पूर्व उपचारित करना चाहिए।

गेहूँ के बीज बोने की विधी – गेहूँ के बीजों की बुवाई देशी हल (केरा या पोरा) अथवा सीड ड्रिल से ही करनी चाहिए। छिड़काव विधि से बीज बोने से बीज ज्यादा लगता है तथा जमाव कम, निराई-गुड़ाई में असुविधा तथा असमान पौधों की संख्या होने से उपज कम हो जाती है। सीड ड्रिल की बुवाई से बीज की गहराई तथा पंक्तियों की दूरी नियंत्रित रहती है तथा इससे जमाव अच्छा होता है। विभिन्न परिस्थितियों में बुवाई हेतु फर्टी-सीड ड्रिल (बीज एवं उर्वरक एक साथ बोने हेतु), जीरो-टिल ड्रिल (जीरो टिलेज या शून्य कर्षण में बुवाई हेतु), फर्व ड्रिल (फर्ब बुवाई हेतु) आदि मशीनों का प्रचलन बढ़ रहा है। इसी प्रकार फसल अवशेष के बिना साफ किए हुए अगली फसल के बीज बोने के लिए रोटरी-टिल ड्रिल भी उपयोग में लाई जा रही है।

सामान्यतः गेहूं को 15-23 से.मी. की दूरी पर पंक्तियों में बोया जाता है। पंक्ति‌यों की दूरी मृदा की दशा, सिंचाईयों की उपलब्धता एवं बोने के समय पर निर्भर करती है। सिंचित तथा समय से बोने हेतु पंक्तियों की दूरी 23 सें.मी. रखनी चाहिए। देरी से बोने पर तथा ऊसर भूमियों में पंक्तियों की दूरी 15-18 सें.मी. रखनी चाहिए। सामान्य दशाओं में बौनी प्रजाति के गेहूं को लगभग 5 सें.मी. गहरा बोना चाहिए, ज्यादा गहराई में बोने से जमाव तथा उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बारानी क्षेत्रों में जहाँ बोने के समय भूमि में नमी कम हो वहाँ बीज को कूड़ों में बोना अच्छा रहता है। बुवाई के बाद पाटा नहीं लगाना चाहिए इससे बीज ज्यादा गहराई में पहुँच जाते हैं तथा जमाव अच्छा नहीं होता है।

गेहूँ की खेती के लिए आवशयक पोषक तत्व/ उर्वरक प्रबंधन – गेहूं उगाने वाले अधिकतर क्षेत्रों में नाइट्रोजन की कमी पाई जाती है तथा फास्फोरस और पोटाश की कमी भी क्षेत्र विशेष में पाई जाती है। पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में गंधक की कमी भी पाई गई है। इन सभी तत्वों की भूमि में मृदा परीक्षण को आधार मानकर आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए।

  • समय से सिंचित दशा में लगभग 125 कि. ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 40-60 कि.ग्रा. पोटाश की आवश्यकता होती है।
  • विलम्बित बुवाई की अवस्था में तथा कम पानी की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में समय से बुवाई की अवस्था में लगभग 80 कि.ग्रा. पोटाश की आवश्यकता होती है।
  • बारानी क्षेत्रों में समय से बुवाई करने पर 40-50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 20-25 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 20 कि.ग्रा. पोटाश की आवश्यकता होती है।
  • असिंचित दशा में उर्वरकों को कूड़ों में बीजों से 2-3 सें.मी. गहरा डालना चाहिए तथा बालियां आने से पहले यदि पानी बरस जाए तो 20 कि.ग्रा./ है. नाइट्रोजन को छिड़क कर देना चाहिए।
  • सिंचित दशाओं में फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा बुवाई से पहले भूमि में अच्छे से मिला देनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष दो तिहाई मात्रा का आधा प्रथम सिंचाई के बाद तथा शेष आधा द्वितीय सिंचाई के बाद छिड़क देना चाहिए।

      आमतौर पर किसानो को यदि उपलब्ध हो तो 5-10 टन गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग करना लाभकारी होता है। खाद की मात्रा के अनुपात में उर्वरकों की मात्रा कम कर देनी चाहिए। धान, मक्का एवं कपास के बाद गेहूं लेने वाले क्षेत्रों में गंधक, जस्ता, मैंगनीज एवं बोरॉन की कमी की संभावना होती है तथा कुछ क्षेत्रों में इसके लक्षण भी सामने आ रहे हैं। ऐसे क्षेत्रों में अच्छी पैदावार के लिए इनका प्रयोग आवश्यक हो गया है। इन पोषक तत्वों की कमी दूर करने का उत्तम तरीका समेकित पोषक तत्व प्रबंधन हैं जिसमें विभिन्न कार्बनिक स्त्रोत जैसे फसल अवशेष, हरी खाद, गोबर की खाद एवं विभिन्न प्रकार की कम्पोस्ट खादों को उर्वरकों के साथ दिया जाता है। गंधक की कमी को दूर करने के लिए गंधकयुक्त उर्वरक जैसे अमोनियम सल्फेट अथवा सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग अच्छा रहता है। जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों तथा धान-गेहूं फसल चक्र वाले क्षेत्रों में साल में कम से कम एक बार जिंक सल्फेट 25 कि.ग्रा./है, की दर से प्रयोग करना चाहिए। यदि इसकी कमी के लक्षण खड़ी फसल में दिखाई दें तो 1.0 किग्रा जिंक सल्फेट और 500 ग्राम बुझा हुआ चूना 200 ली. पानी में घोलकर 2-3 छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए इसी प्रकार मैगनीज सल्फेट का 200 ली, पानी में घोलकर पहली सिंचाई के दो-तीन दिन पहले छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार एक सप्ताह के अन्तराल से 2-3 छिडकाव की आवश्यकता होती है। छिडकाव साफ मौसम एवं खिली हुई धुप में करे।

      गेहूँ की खेती के लिए सिंचाई – सामान्यतः गेहूँ की फसल के लिए 3-6 सिंचाई की आवश्यकता होती है। पानी की उपलब्धता एवं पौधों की आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। शीर्ष जड़ें निकलने (क्राउन रूट इनिशियेशन) एवं बाली बनते समय (हेडिंग) ऐसी क्रॉन्तिक अवस्थाएं हैं जहां नमी की कमी का प्रतिकूल प्रभाव उत्पादन पर अधिक पड़ता है। अतः इन अवस्थाओं पर सिंचाई करना अनिवार्य होता है। अगर मार्च के शुरूआत में तापमान सामान्य से अधिक बढ़ने लगे तो हल्की सिंचाई देना लाभदायक है।

      गेहूँ की खेती के लिए खरपतवार प्रबंधन –गेहूँ की फसल में रबी के सभी खरपतवार जैसे बथुआ, प्याजी, खरतुआ, हिरनखुरी, चटरी, मटरी, सैंजी, अंकरा, कृष्णनील, गेहुंसा, तथा जंगली जई आदि खरपतवार लगते हैं। इनकी रोकथाम निराई गुड़ाई करके की जा सकती है, लेकिन कुछ रसायनों का प्रयोग करके रोकथाम किया जा सकता है जो की निम्न है जैसे की पेंडामेथेलिन 30 ई सी 3.3 लीटर की मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिलकर फ़्लैटफैन नोजिल से प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव बुवाई के बाद 1-2 दिन तक करना चाहिए। जिससे की जमाव खरपतवारों का न हो सके, चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद एवं पहली सिंचाई के एक सप्ताह बाद 24डी सोडियम साल्ट 80% डब्लू पी. की मात्रा 625 ग्राम 600-800 लीटर पानी में मिलकर 35-40 दिन बाद बुवाई के फ़्लैटफैन नीजिल से छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद जहाँ पर चौड़ी एवं संकरी पत्ती दोनों ही खरपतवार हों वहां पर सल्फोसल्फ्युरान 75% 32 ऍम. एल. प्रति हैक्टर इसके साथ ही मेटासल्फ्युरान मिथाइल 5 ग्राम डब्लू जी. 40 ग्राम प्रति हैक्टर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए, इससे खरपतवार नहीं उगते हैं या उगते हैं तो नष्ट हो जाते हैं।

      गेहूँ में लगने वाले प्रमुख कीट एवं कीट नियंत्रण

      गेहूँ उगाने वाले क्षेत्रों में दीमक और माहू का प्रकोप बढ़ रहा है। यदि माहू की संख्या प्रति पौधा 10 से अधिक हो जाये तो इमिडाक्लोप्रिड की 20 ग्राम मात्रा को 300 लीटर पानी में घोल कर खेत में छिड़काव करें । प्रारंभिक अवस्था में दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास की 3 लीटर प्रति हैमात्रा को 300 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें अथवा सिंचाई के पानी के साथ दें अथवा इमिडाक्लोप्रिड की 1 ली. मात्रा, 300 ली. पानी प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करने से भी दीमक पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

      गेहूँ में लगने वाले प्रमुख रोग एवं रोग नियंत्रण

      गेहूँ की फसल में मुख्यतः रतुवा, कडुवा एवं करनाल बंट का प्रकोप होता है। इसके अलावा कभी- कभी चूर्णिल आसिता एवं झुलसा रोग भी कुछ क्षेत्रों में लगते हैं ।

      रतुवा – ये पीला, भूरा व काले रंग के रतुवा के नाम से जाने जाते हैं। इनमें पत्तियां तथा तनों पर रतुवा की किस्म के आधार पर उसी रंग के धब्बे बन जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए नई एवं अवरोधी प्रजातियाँ ही बोनी चाहिए। जिनेब या डाइथेन एम-45 का 0.2 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करने से इन बीमारियों से होने वाली हानि को कम किया जा सकता है।

      कंडुवा रोग – इस रोग से बालियों में दानों की जगह काला चूर्ण भर जाता है। इसकी रोकथाम के लिए वीटावैक्स या कारबेन्डाजीम 2.5 ग्रा. प्रति कि. ग्रा. बीज अथवा टेबूकोनाजोल 1.25 ग्रा. प्रति कि.ग्रा. की दर से बीज को उपचारित करना चाहिए।

      झुलसा रोग – यह एक कवकजनित रोग है। इससे पत्तियां सूखने के बाद पूरा पौधा सूख जाता है। अधिक आर्द्रता एवं तापमान होने पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस बीमारी से बचाव के लिए नई प्रजातियां ही प्रयोग में लाना चाहिए।

      करनाल बंट – इस बीमारी से गेहूँ का दाना काला पड़ जाता है जिससे बाजार में उचित भाव नहीं मिल पाता है। इसके बचाव के लिए नवीन प्रजातियों का प्रयोग तथा थायरम 2.5 ग्रा. प्रति कि. ग्रा. बीज की दर से उपचार करना चाहिए। इस प्रकार उपरोक्त तकनीकों को अपनाकर गेहूँ की फसल से अधिक उपज व शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

      गेहूँ की कटाई एवं भंडारण

      गेहूँ की फसल पकते ही बिना प्रतीक्षा किये हुए कटाई करके तुरंत ही मड़ाई कर दाना निकाल लेना चाहिए, और भूसा व दाना यथा स्थान पर रखना चाहिए, अत्यधिक क्षेत्री वाली फसल कि कटाई कम्बाईन से करनी चाहिए इसमे कटाई व मड़ाई एक साथ ही हो जाती है।

      मौसम का बिना इंतजार किये हुए उपज को बखारी या बोरो में भर कर साफ सुथरे स्थान पर सुरक्षित कर सूखी नीम कि पत्ती को डालकर करना चहिए या रसायन का भी प्रयोग करना चाहिए।

      किसान भाइयों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न

      गेहूँ के लिए सबसे अच्छा टॉनिक कौन सा है?

      ह्यूमिक एसिड फसलों के लिए सबसे अच्छा टॉनिक है।

      एक बीघा जमीन में कितना गेहूं हो सकता है?

      एक बीघा जमीन में लगभग 15-20 क्विंटल गेहूं का उत्पादन किया जा सकता है।

      एक बीघे में कितना यूरिया डालना चाहिए?

      गेहूँ की फसल में 120 किलो नाइट्रोजन (250 से 280 किलो यूरिया उर्वरक) प्रति हैक्टेयर डालना चाहिए। इसकी आधी मात्रा 60 किलो नत्रजन (लगभग 120-125 किलो यूरिया उर्वरक) प्रति हैक्टेयर बुवाई के समय प्रयोग करें।

      गेहूं बोने का सही समय कौन सा है?

      गेहूं की बुआई सामान्यत: अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े से नवम्बर की शुरुआत तक की जाती है।

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