तिल की खेती कब और कैसे करें (Til Ki Kheti Kese Karen) Rajendra Suthar, February 24, 2024February 24, 2024 तिल का वानस्पतिक नाम Sesamum indicum है। राजस्थान में तिल की खेती लगभग 6.68 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में की जा रही है। जो राजस्थान में कुल तिलहन क्षेत्र का लगभग 19.31 प्रतिशत है। तिल क्षेत्र में राजस्थान देश में प्रथम स्थान पर है। राजस्थान में तिल की खेती मुख्य रूप से खरीफ में असिंचित क्षेत्रों में की जाती है। तिल का उत्पादन राजस्थान में देश के अन्य तिल क्षेत्रों की तुलना में काफी कम है शुष्क क्षेत्रों में तिल का उत्पादन कम होने का मुख्य कारण है तिल की खेती के लिए सिंचाई की सुविधा का अभाव, स्थानीय बीजों का अधिक प्रयोग, खाद एवं उर्वरकों का आवश्यकता से कम उपयोग, कीटनाशक दवाओं को कम उपयोग इत्यादि है। शुष्क क्षेत्रों में तिल का उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि अनुसंधान संस्थानों एवं कृषि विश्व विद्यालयों द्वारा आधुनिक तकनीकियां विकसित की है, जिनको अपनाने से उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी की जा सकती है।तिल को मैदानी क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा तथा अरहर के साथ बोते हैं। तिल की खेती के लिए उपयुक्त मौसम गर्मी का होता है और यह अच्छी तरह से निकासी वाली मिट्टी में बेहतर उगता है। भारत में, इसे रबी और खरीफ दोनों सीजन में उगाया जाता है। तिल की फसल को कम पानी की आवश्यकता होती है, जिस कारण यह सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। तिल के बीज में प्रोटीन, विटामिन B, खनिज जैसे कैल्शियम, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, और फाइबर भी पाया जाता है, जो इसे पोषण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण बनाते हैं। तिल के पौधे आमतौर पर छोटे होते हैं और इसकी खेती के लिए गहन श्रम की आवश्यकता होती है, खासकर बुवाई और कटाई के समय। इसकी कटाई के बाद, बीजों को सुखाया जाता है और फिर उन्हें अलग करने के लिए झाड़ा जाता है।तिल की उन्नत किस्में/ तिल का हाइब्रिड बीजतिल की फसल की अधिक उपज के लिए उन्नतशील बीज की किस्मों का प्रयोग करना चाहिए। उन्नत किस्मों का प्रयोग करने से फसल में कीड़े व बीमारियों का प्रकोप कम होता है तथा उपज भी 20-30 प्रतिशत अधिक होती है। अधिक उपज के लिए निम्न उन्नतशील किस्मों को उपयोग में लेना चाहिए-तिल की किस्म किस्म की विशेषता पकने का समय (दिनों में)उपज (कु./हे.)तेल की मात्रा (%मे)टी. के. जी. -308तना एवं जड़ सड़न रोग के लिए सहनशील80-90600-70045-50जे. टी. – 11गहरे भूरे रंग का दाना होता है, मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील एवं गीष्मकालीन खेती के लिए उपयुक्त82 -85650-70046-50जे. टी. – 12सफेद रंग का दाना, मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील एवं गीष्मकालीन खेती के लिए उपयुक्त होता है82 -85650-70050-53जवाहर तिलपौध गलन, सर्कोस्पोरा, पत्ती धब्बा, भूतिया एवं फाइलोडी के लिए सहनशील86-90700-90050-52जे. टी. एस. – 8 दाने का रंग सफेद फाइटोपथोरा अंगमारी, पति धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील86-90600-70050-52टी. के. जी. – 55 सफेद फाइटोपथेरा अंगमारी, माइक्रोफ़ोनिना तना एवं जड़ सड़न बीमारी के लिए सहनशील76-78630-65051-53कृष्णाकाला दाना85-90600-70044-46कॉके सफेदसफेद दाना105-110500-60045-50आर. टी. – 127जड़, तना रोग एवं पत्ती गलन रोग के लिए सहनशील है75-80425-45045-47आर. टी. – 125सभी फलियां एक साथ लगती है।80-85550-64545-50आर. टी. – 46पत्ती एवं फली छेदक कीट कम लगते है73-90600-80048-50टी. सी. – 25जल्दी से पकने वाली किस्म है90-100400-50040-50टी. – 13पौधे 100-125 सेंटीमीटर की ऊंचाई के होते है90-100450-51040-49तिल की खेती के लिए आवश्यक जलवायुतिल की खेती के लिए आवश्यक जलवायु गर्म और शुष्क होनी चाहिए। यह फसल अधिक तापमान और प्रकाश की उपस्थिति में अच्छी तरह से बढ़ती है। तिल के बीजों की बुवाई के लिए तापमान 25°C से 30°C के बीच आदर्श माना जाता है। यह फसल कम पानी में भी अच्छी तरह से उग सकती है, इसलिए सूखा प्रवण क्षेत्रों में इसकी खेती विशेष रूप से उपयुक्त होती है। तिल की फसल को अधिक वर्षा से हानि पहुंच सकती है, खासकर फूल आने के समय और फसल के पकने के समय, जिससे बीजों की गुणवत्ता और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए, तिल की खेती के लिए ऐसी जलवायु सबसे उपयुक्त होती है जहां वर्षा कम होती है और फसल के विकास के दौरान मौसम अधिकतर शुष्क रहता है। अच्छी उपज के लिए खेती के अंतिम चरण में सूखा पड़ना भी आवश्यक होता है, ताकि बीज पूरी तरह से पक कर तैयार हो सकें।तिल की खेती के लिए अनुकूल मृदातिल की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन यह अच्छी तरह से निकासी वाली, उपजाऊ लोमी या दोमट मिट्टी में सबसे बेहतर रूप से बढ़ती है। तिल की फसल के लिए मिट्टी का pH मान 5.5 से 8 के बीच होना चाहिए, जिससे यह अम्लीय से लेकर क्षारीय तक की मिट्टी में उग सकती है। हालांकि, इसे सबसे उपयुक्त विकास के लिए नमी संरक्षण और अच्छी निकासी की आवश्यकता होती है।भारी और अत्यधिक अम्लीय मिट्टी तिल की खेती के लिए अनुपयुक्त मानी जाती है क्योंकि इसमें जल निकासी की समस्याएँ हो सकती हैं और जड़ों को आवश्यक पोषण नहीं मिल पाता। तिल की फसल के लिए मिट्टी में अच्छा हवा का संचार भी जरूरी है, जिससे जड़ें स्वस्थ रह सकें और अच्छी तरह से विकसित हो सकें।तिल की खेती कब करे (Til Ki Kheti Kab Karen)ग्रीष्मकालीन तिल की खेती का उचित समय जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई का दूसरा पखवाड़ा है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में इससे पूर्व बुआई करने से फाइलोडी रोग लगने का भय रहता है। बुआई हल के पीछे लाइनों में 30 से 45 से.मी. की दूरी पर करें। बीज को कम गहराई पर बोयें। बीज का आकार छोटा होने के कारण बीज को रेत,राख या सूखी हल्की बलुई मिट्टी में मिलाकर बोयें।तिल की खेती की विधि (Til Ki Kheti Ki Vidhi)तिल की बुवाई की विधि का उपज पर सीधा प्रभाव पड़ता है। तिल की बुवाई सीधी लाइन में करनी चाहिए। लाईन से लाईन की दूरी 30 से 45 सेमी. एवं पौधों से पौधों की दूरी 10-15 सेमी. रखनी चाहिए। पश्चिमी राजस्थान में अधिकतर किसान तिल को छिड़क कर बोते है। छिड़क कर बोने से पौधों से पौधों की दूरी सही नहीं हो पाती हैं तथा पौधे की संख्या प्रति वर्ग मीटर आवश्यकता से अधिक हो जाती है, जिससे पौधों को बढ़ने में पर्याप्त जगह नहीं मिल पाती है। पौधों को पर्याप्त सूर्य का प्रकाश भी नहीं मिल पाता है पौधे सीधे ही बढ़ते हैं। शाखाएं कम निकलती है। फलियों की संख्या कम हो जाती है निराई-गुड़ाई करने में भी असुविधा रहती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पौधों को आवश्यक पोषक तत्व अधिक पौधे होने के कारण कम प्राप्त होते हैं एवं फसल में कीड़े व बीमारियों का प्रकोप होने पर दवा छिड़कने में असुविधा रहती है।तिल की खेती मे उर्वरकों का प्रयोग –तिल की अधिक उपज प्राप्त करने के लिये 60 किग्रा. नाइट्रोजन एवं 46 किग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टर का प्रयोग फसल मे करना चाहिए। फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुवाई के समय खेत में डाल देनी चाहिए जब फसल 30-35 दिन की हो जाय शेष आधी नाइट्रोजन को खड़ी फसल में छिड़काव के रूप में देनी चाहिए।तिल की खेती मे गंधक का उपयोग –तिल के पौधों को कुछ मुख्य पोषक तत्वों के अलावा कुछ सूक्ष्म तत्वों की भी आवश्यकता होती है जिसमें गन्धक एक प्रमुख तत्व है। अधिक उपज के लिए 15 किग्रा. गन्धक प्रति हैक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए। गन्धक की आधी मात्रा बुवाई के पहले नाइट्रोजन व फास्फोरस के साथ देनी चाहिए तथा बाकी मात्रा खड़ी फसल में शेष आधी नाइट्रोजन के साथ गंधक मिलाकर देने से नाइट्रोजन की हानि भी कम होती है गन्धक के प्रयोग से तेल की मात्रा में भी 4 से 10 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।तिल की खेती मे खरपतवार नाशक दवा – तिल की फसल में खरपतवारों का अधिक प्रकोप होता है, क्योंकि प्रारम्भिक अवस्था में इसकी वृद्धि बहुत ही कम होती है तथा खरपतवारों से मुकाबला करने की क्षमता भी कम होती है। अच्छी फसल लेने के लिए तिल की फसल में प्रारम्भिक अवस्था में ही खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। तिल में खरपतवारों का यान्त्रिक एवं रासायनिक दवाओं द्वारा नियंत्रण किया जा सकता है। खेत में बुवाई या अगले दिन तक पेन्डीमैथिलीन से पहले वेसलीन एक लीटर सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव कर देना चाहिए तथा बुवाई के 20-25 दिन बाद एक गुड़ाई कर देनी चाहिए।तिल की फसल की निराई – तिल की फसल की निराई गुड़ाई, बुवाई के 15-20 दिनों बाद दूसरी निराई 30-35 दिन बाद करें। निराई-गुड़ाई करते समय पौधें की थिनिंग (विरलीकरण) करके उनकी आपस की दूरी 10 से 12 सेमी. कर लें। एलाक्लोर 50 ई.सी. 1.25 लीटर प्रति हैक्टेयर बुआई के 3 दिन के अन्दर प्रयोग करने से खरपतवारों का नियन्त्रण हो जाता है।तिल की फसल में सिचाई – जब तिल के पौधों में 50-60 प्रतिशत फली लग जाय और उस समय नमी की कमी हो तो एक सिंचाई करना आवश्यक है।तिल की कटाई–मड़ाईतिल की फसल की कटाई उचित अवस्था पर करके बण्डल बनाकर खलिहान ऊर्द्धाकार रखें। बण्डल सूख जाने पर पक्के फर्श या तिरपाल पर ही तिल की मड़ाई करें। गोबर के लेप खलिहान में मड़ाई न करे इससे निर्यात की गुणवत्ता में कमी आ जाती है।तिल में लगने वाले कीट एवं कीटगाल मक्खी :- यह तिल की फसल का प्रमुख कीट है। जो सबसे अधिक हानि पहुंचाता है। गिडार सफेद मटमैले रंग की प्यूपा भूरे रंग का होता है। गिडार के आक्रमण से कलियों में फूल गांठ का रूप धारण कर लेते है, जिससे कैप्सूल नहीं बन पाते। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफोस 36 डब्ल्यू.पी. या इकालेक्स 25 ई.सी. एक लीटर प्रति हैक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।फली एवं पत्ती छेदक :- कीट की लट पत्तियों को खाकर काफी नुकसान पहुँचाती है। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफोस 36 डब्ल्यू पी. या कार्बोरिल 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का फसल पर छिड़काव करें।तिल में लगने वाले रोग एवं रोग नियंत्रणफिलोडी :- यह बीमारी पत्ती मोडक कीट के द्वारा फैलती है। इस बीमारी का प्रकोप पुष्पावस्था में होता है। इसके प्रकोप से फूल अंग हरी पत्ती जैसी आकृति में परिवर्तित हो जाते हैं तथा पौधे की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है पत्तियों का आकार कम हो जाता है तथा शाखायें असामान्य हो जाती है पौधों का उपरी भाग गुच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस बीमारी से प्रभावित पौधों में कैप्सूल बहुत कम बनते हैं। कैप्सूल केवल नीचे के हिस्से पर ही बनते है तथा उनमें बीज बहुत कम बनते हैं। उपचार :- इस बीमारी के प्रकोप को रोकने के लिए पत्ती मोडक की रोकथाम बहुत ही आवश्यक है। इसकी रोकथाम के लिए मैटासिस्टोक्स 1 मिली. एक लीटर पानी में मिलाकर आवश्यकतानुसार घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।जड़ एवं तना गलन:- इस बीमारी का प्रकोप एक प्रकार की फफूंद के कारण होता है। इसके लक्षण तना, जड़ एवं फलियों पर दिखाई देते हैं। जड़ एवं तने का रंग भूरा हो जाता है। इसका अधिक प्रकोप होने से फलियों में बीज नहीं बन पाते तथा जो भी बीज बनते है वे भी सिकुड़ जाते हैं एवं हल्के होते हैं।उपचार:-इस बीमारी का नियंत्रण करने के लिए बीज को बोने से पहले केप्टान या ब्रासीकोल से 2 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करके बोना चाहिए तथा इस बीमारी से ग्रसित खेत में लगातार तिल की फसल नहीं लेनी चाहिए।किसान भाइयों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नएक बीघा में तिल्ली कितनी होती है?एक बीघे में दो किलो बीज लगता है। इससे 4 क्विंटल तक उत्पादन होता है।तिल की बुवाई कौन से महीने में करनी चाहिए?तिल की बुवाई जुलाई महीने के अंत तक की जा सकती है।तिल की फसल कितने दिन में तैयार होती है?तिल की फसल लगभग 85 से 90 दिनों में पक कर तैयार हो जाती हैं।तिल में सामान्यतया कौनसे उर्वरक का उपयोग करना चाहिए?तिल में सामान्यतया 20 किग्रा. गन्धक या 200 किग्रा0 जिप्सम का प्रयोग करें। कृषि सलाह