कपास की खेती कब और कैसे करें (Kpas Ki Kheti Kese Karen) Rajendra Suthar, April 3, 2024April 3, 2024 कपास (cotton) जिसे सफेद सोना भी कहा जाता है, भारत की एक प्रमुख नकदी फसल है जो कृषि और औद्योगिक अर्थव्यवस्था दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह फसल भारत में 60 लाख किसानों को प्रत्यक्ष रूप से आजीविका प्रदान करती है और व्यापार तथा प्रसंस्करण सहित इससे जुड़े अन्य कार्यों में लगभग 4-5 करोड़ लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार मिलता है। इसकी खेती मुख्य रूप से काली मिट्टी वाले राज्यों जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, और तमिलनाडु में की जाती है।कपास की खेती काफी श्रमसाध्य होती है, जिसमें बुवाई से लेकर बाजार में बेचने तक भारी मेहनत शामिल है। इसकी उपज, जो कपड़े बनाने के लिए अत्यधिक मांग में है, न केवल किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करती है बल्कि भारत को विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश भी बनाती है। कपास से निकाले गए तेल और रुई का इस्तेमाल विभिन्न उद्योगों में होता है, जिससे इसकी व्यापक उपयोगिता सिद्ध होती है।इस फसल की विभिन्न प्रजातियाँ हैं जिनमें से लंबे रेशों वाली कपास सबसे अधिक मूल्यवान मानी जाती है। भारत में इसकी खेती बढ़ती मांग और उपयोग के कारण लगातार विस्तारित हो रही है, और किसान इसके साथ सहफसली खेती करके अधिक लाभ कमा सकते हैं। इस प्रकार, कपास भारत की आर्थिक और औद्योगिक प्रगति में एक केंद्रीय भूमिका निभाता है।कपास (cotton) की उन्नत किस्मेंबाजार में उपलब्ध कपास की विभिन्न उन्नत किस्मों को उनकी श्रेणियों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जो कि उनके रेशों की लंबाई के अनुसार होता है। इन्हें मुख्यतः तीन श्रेणियों में बांटा गया है।छोटे रेशों वाली कपास – इस श्रेणी में वे कपास की किस्में आती हैं, जिनके रेशों की लंबाई 3.5 सेंटीमीटर से कम होती है। इन किस्मों की खेती विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों में की जाती है, जैसे कि असम, हरियाणा, राजस्थान, त्रिपुरा, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, और मेघालय। इस श्रेणी की कपास का कुल उत्पादन लगभग 15% होता है।मध्यम रेशों वाली कपास – इस श्रेणी के रेशों की लंबाई 3.5 से 5 सेंटीमीटर के बीच होती है। इसे मिश्रित श्रेणी की कपास भी कहा जाता है और इसकी खेती भारत के लगभग सभी हिस्सों में होती है। इस श्रेणी की कपास का कुल उत्पादन में सबसे बड़ा हिस्सा है, जो कि 45% होता है।बड़े रेशों वाली कपास – इस श्रेणी की कपास को सर्वोत्तम माना जाता है, जिसके रेशों की लंबाई 5 सेंटीमीटर से अधिक होती है। इसका उपयोग उच्च कोटि के वस्त्रों के निर्माण में किया जाता है। भारत में, इस श्रेणी की किस्मों की खेती का स्थान दूसरा है, जिसका कुल उत्पादन में 40% हिस्सा होता है। इसकी खेती मुख्य रूप से तटीय क्षेत्रों में की जाती है, इसलिए इसे समुद्री द्वीपीय कपास भी कहा जाता है।देशी प्रजाति – देशी प्रजाति की कपास को छोटे रेशों वाली कपास की श्रेणी में रखा गया है। इस प्रजाति की कपास का उत्पादन 3 से 4 क्विंटल प्रति बीघा के बीच होता है। हालांकि, आजकल इस प्रजाति की खेती कम ही की जाती है।किस्मपैदावार (क्विंटल/बीघा)तैयार होने में लगा टाइमलोहित3.5170 से 180 दिनआर. जी. 84175 से 180 दिनसी.ए.डी. 44150 दिन तकएच डी-4324.5160 से 170 दिनएच डी-3244175 से 180 दिनएच डी-1233.5-4.5165 दिन तकनरमा (अमेरिकन) प्रजाति –किस्मपैदावार (क्विंटल/बीघा)तैयार होने में लगा टाइमएच.एस. 65165 से 170 दिन तकविकास5-6150 दिन तकआर.एस. 20135-6160 से 165 दिन तकआर.एस. 8104.5-5170 दिन तकएच. 11175-6175से 180 दिन तकएफ.8464-6175 से 180 दिन तकएच एच एच- 2236-7170 दिन तकबीकानेरी नरमा6160 से 180 दिन तकएच- 13006-7165 से 170 दिन तकसंकर प्रजाति –किस्मपैदावार (क्विंटल/बीघा)तैयार होने में लगा टाइमएच एच एच 2235-8175 से 180 दिन तकए ए एच-16-7180 दिन से ज्यादाएच एच एच 2876-7160 से 170 दिन तकधनलक्ष्मी5-7150 दिन से ज्यादाराज एच एच- 1166160 से 180 दिन तकसंकर बीटी –किस्मपैदावार (क्विंटल/बीघा)तैयार होने में लगा टाइमरासी 7735-7170 दिन तकयू.एस. 516-8160 से 180 दिन तकएम आर सी एच- 6304 बीजी- I5-6180 दिन से ज्यादातुलसी- 4 बी जी6-8170 से 190 दिन तकएम आर सी- 7017 बीजी- II5-8160 से 200 दिन तककपास की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टीकपास की फसल की बुवाई के लिए बलुई दोमट और काली मिट्टी को आदर्श माना जाता है, क्योंकि इन मिट्टी के प्रकार में कपास का उत्पादन अधिक होता है। वर्तमान में, बाजार में विभिन्न संकर प्रजातियाँ उपलब्ध होने के कारण, कपास की खेती अब पहाड़ी और रेतीले क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक की जा रही है। इसके लिए, भूमि का पीएच स्तर 5.5 से 6 के बीच होना अनिवार्य है। कपास की खेती के लिए पानी की आवश्यकता कम होती है, इसलिए इसे उचित जल निकासी वाली मिट्टी में उगाना चाहिए।कपास की खेती के लिए जलवायु और तापमान की आवश्यकताकपास की खेती किसी विशेष जलवायु की मांग नहीं करती, परंतु जब कपास के पौधे में फूल आने लगते हैं, उस समय ठंड के मौसम में पड़ने वाला पाला इसे हानि पहुँचा सकता है। इसके अलावा, जब इसके फूल खिलते हैं, तो उस समय तीव्र धूप की आवश्यकता होती है।कपास की खेती के लिए तापमान एक महत्वपूर्ण कारक है। बीजों को खेत में बोने के बाद, उनके अंकुरण के लिए लगभग 20 डिग्री सेल्सियस का तापमान आवश्यक होता है। इसके पश्चात्, पौधे के विकास के लिए 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान चाहिए होता है, जबकि यह 40 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर भी सुचारू रूप से बढ़ सकता है।कपास की खेती कैसे करेखेत की जुतायी का समय – कपास की खेती के लिए प्रथम चरण में खेत की गहराई से जुताई करने के पश्चात्, उसे कुछ दिनों के लिए वायुमंडलीय संपर्क में छोड़ देना चाहिए। इसके बाद, खेत में गोबर की खाद बिखेर देनी चाहिए। खाद बिखेरने के उपरांत, खेत की दोबारा दो से तीन बार जुताई करें ताकि गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह मिल जाए।यदि वर्षा नियत समय पर न हो, तो खेत में सिंचाई कर देनी चाहिए। सिंचाई के कुछ दिनों बाद, खेत की फिर से जुताई करें, जिससे सिंचाई के बाद उग आई सभी खरपतवार का निष्कासन हो जाए। जुताई के पश्चात्, खेत में हल्का पानी दें और फिर से जुताई करें।इस बार जुताई के साथ, खेत की मिट्टी को समतल करने के लिए पाटा लगाना न भूलें, ताकि जमीन समतल हो जाए। इसके बाद, खेत में उर्वरक डालें और जुताई के साथ-साथ पाटा भी लगा दें। इसके अगले दिन खेत में बीज बोया जाता है। कपास के बीज को शाम के समय बोने से विशेष लाभ होता है।बीज लगाने का समय – कपास के बीजों की विभिन्न प्रजातियाँ उपलब्ध हैं जिन्हें अलग-अलग समय पर आसानी से उगाया जा सकता है। जहाँ सिंचाई का उचित प्रबंधन हो, वहाँ कपास की बोई को अप्रैल के अंतिम सप्ताह और मई के प्रारंभ में कभी भी किया जा सकता है। इससे फसल को सही समय पर पकने का अवसर मिलता है।जहाँ सिंचाई का उचित प्रबंधन नहीं हो, वहाँ खेत की तैयारी के बाद प्रथम वर्षा के बाद खेत में उर्वरक डालना चाहिए। इससे पौधे बारिश के समय में जल्दी से बड़े हो जाते हैं।कपास के बीज की बुआई कैसे करे – कपास की कई प्रजातियाँ हैं. इन सभी प्रजातियों को खेत में अलग अलग तरीके से उगाया जाता है. बीज को खेत में लगाने से पहले बीज को उपचारित कर लेना चाहिए. जिससे कीटों से लगने वाले रोग कम लगता है. इसके लिए बीज को कार्बोसल्फान या इमिडाक्लोप्रीड से उपचारित कर खेत में लगाना चाहिए।देशी किस्म की कपास ज्यादा फैलाव नही लेती. जिस कारण इसे ज्यादा दूरी पर नही उगाया जाता है. देशी किस्म की कपास को खेत में लगाते टाइम दो कतारों के बीच 40 सेंटीमीटर तक की दूरी रखनी चाहिए. जबकि दो पौधों के बीच 30 से 35 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए।अमेरिकन किस्म के बीजों को खेत में उगाते टाइम दो कतारों के बीच 50 से 60 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए. जबकि पौधों के बीच 40 सेंटीमीटर से ज्यादा दूरी होनी चाहिए. इसका चार किलो बीज प्रति एकड़ लगाना चाहिए. जमीन के अंदर बीज 4 से 5 सेंटीमीटर नीच डालना चाहिए. ज्यादा नीचे डालने के बाद बीज बाहर नही निकल पाता है।संकर बीटी किस्म के पौधों को खेत में लगाते टाइम दो पौधों को लगभग 60 से 80 सेंटीमीटर की दूरी पर लगायें. जबकि कतारों में इसे 100 सेंटीमीटर से ज्यादा दूरी पर लगाया जाना चाहिए. इस किस्म के पौधों को फैलने के लिए ज्यादा दूरी की आवश्यकता होती है. इसका 450 ग्राम बीज प्रति बीघा में उगाना चाहिए। अधिक क्षारीय भूमि में कपास की पैदावार मेढ़ों के ऊपर बीज लगाकर की जाती है।कपास की खेती के लिए खरपतवार नियंत्रण –कपास की खेती में, जब पौधों पर फूल आने लगते हैं, तो खरपतवार को ज्यादा ध्यान देना चाहिए। इस समय पर कई प्रकार के खरपतवार उग आते हैं, जिनमें कीटों का प्रकोप भी होता है। ये कीट पौधों में विभिन्न प्रकार के रोग पैदा कर सकते हैं। इन रोगों से बचाव के लिए, खरपतवार को नियंत्रित करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए।इसके लिए समय-समय पर कपास के खेत की खुराक और परिपाटी करते रहना चाहिए। खेत में बीज लगाने के 25 दिन बाद से ही खुराक और परिपाटी करनी चाहिए। इससे पौधों का सही विकास होता है और कोई भी रुकावट नहीं आती।कपास के पौधों में लगने वाले रोग एवं रोकथामहरा मच्छर कीट रोग (Green Mosquito Pest Disease) – वैसे प्रकार के रोग नयी पत्तियों पर देखने को मिलता है। हरा मच्छर कीट रोग पत्तियों की निचली सतह पर शिराओं के पास बैठकर रस चूसते रहते हैं, जिस कारण पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं, और कुछ समय बाद ये पत्तियाँ टूट कर नीचे गिर जाती हैं। इमिडाक्लोप्रिड 17.8 SL या मोनोक्रोटोफॉस 36 SL का उचित मात्रा में छिड़काव करने से इस रोग से बचाव किया जा सकता है।इसी तरह से सफेद मक्खी कीट भी पत्तियों पर पाई जाती है, जो पत्तियों की निचली सतह पर बैठकर रस चूसती है। यह कीट पत्तियों पर चिपचिपा प्रदार्थ छोड़ देती है, जिससे पत्तियों में पत्ता मरोड़ नमक रोग हो जाता है, और इससे पत्तियाँ सूख कर गिर जाती हैं। कुछ नये प्रकार की किस्में हैं जिनमें यह रोग नहीं लगता, जैसे – बीकानेरी नरमा, आर एस- 875, मरू विकास आदि। अन्य प्रकार के पौधों पर इस रोग से बचाव के लिए ट्राइजोफॉस 40 EC या मिथाइल डिमेटान 25 EC की पर्याप्त मात्रा में छिड़काव करना चाहिए।चितकबरी सुंडी रोग (Pied Beetle) – चितकबरी सुंडी नामक कीट जब फूल टिंडे बनते हैं, तब उन पर आक्रमण करती है। जिससे पौधे का ऊपरी भाग सूखने लगता है, तथा टिंडे की पंखुड़ी पीली पड़ जाती है, और टिंडे के अंदर का कपास खराब हो जाता है। इस कीट से बचाव के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 SL, क्लोरपायरीफास 20 EC, मेलाथियान 50 EC में से किसी एक दवा का छिड़काव पर्याप्त मात्रा में करना चाहिए।तेल कीट रोग (Oil Pest Disease) – तेल कीट रोग की वजह से पत्तियों को अधिक हानि होती है, यह काले रंग का कीट होता है जो कि छोटे आकार का होता है। इस तरह के कीट से रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 S.L. या थायोमिथाक्जाम 25 WG नामक दवा का पर्याप्त मात्रा में छिड़काव करते रहना चाहिए।तम्बाकू लट कीट रोग (Tobacco Braided Pest Disease) – पौधों के लिए यह कीट अधिक हानिकारक माना जाता है, यह कीट लम्बे आकार का होता है जो कि पत्तियों को खाकर उन्हें जालीनुमा बना देता है, जिससे पत्तिया पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। इस कीट से बचाव के लिए फलूबैन्डीयामाइड 480 S, थायोडिकार्ब 75 SP और इमामेक्टीन बेंजोएट 5 S G दवा का पर्याप्त मात्रा में छिड़काव करते रहना चाहिए।झुलसा कीट रोग से बचाव (Prevention of Scorch Pest Disease) – न्य कीट रोगों की तुलना में झुलसा कीट रोग अधिक खतरनाक होता है। इस रोग के लग जाने पर टिंडे पर काले रंग के चित्ते बनने लगते हैं, और टिंडा समय से पहले खिल जाता है, जिससे उसका रेशा भी ख़राब हो जाता है। यह कीट रोग कम समय में ही पौधे को पूरी तरह से नष्ट कर देता है। इस तरह के रोग से बचाव के लिए काँपर ऑक्सीक्लोराइड दवा का पौधों पर नियमित रूप से छिड़काव करना चाहिए। साथ ही बीज को बोने के वक्त बाविस्टिन कवकनाशी दवा से उपचार करना चाहिए।पौध अंगमारी रोग से बचाव (Plant Blight Disease Prevention) – इस रोग के हो जाने पर कपास के टिंडो वाले पत्ते लाल कलर के हो जातोी हैं। खेत में नमी होने पर भी पौधा मुरझाने लगता है। इस रोग के लग जाने पर पौधा कुछ दिन बाद ही नष्ट हो जाता है। इस रोग की रोकथाम के लिए एन्ट्राकाल या मेन्कोजेब का पौधों पर छिड़काव करना चाहिए।अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग से बचाव (Preventing Alternaria Leaf Spot Disease) – यह बीजजनित रोग होता है, जिसके लग जाने पर पहले पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। फिर काले भूरे रंग का गोलाकार बन जाता है, यह रोग पत्तियों को जल्द ही गिरा देता है। इसका असर पैदावार को सिमित कर देता है, स्ट्रेप्टोसाइक्लिन नामक दवा से इस पर छिड़काव कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है।जड़ गलन रोग से बचाव (Root Rot Disease Prevention) – जड़ गलन यह समस्या पौधों में ज्यादा पानी की वजह से देखने को मिलती है, इससे बचाव के लिए एक ही तरीका है कि खेत में जल का भराव न रहने दें। इस तरह की समस्या अधिकतर बारिश के मौसम में देखने को मिलती है। इस रोग में पौधा शुरुआत से ही मुरझाने लगता है, इससे बचाव के लिए खेत में बीज को लगाने से पहले कार्बोक्सिन 70 डब्ल्यूपी 0.3% या कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूपी 0.2% से उपचारित कर लेना चाहिए। कपास की फसल के साथ मोठ की बुवाई करने से भी इसका बचाव किया जा सकता है।कपास की उन्नत खेती में खाद एवं उर्वरक का प्रयोगबुवाई से तीन चार सप्ताह पहले 25 से 30 गाड़ी गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर की दर से जुताई कर भूमि में अच्छी तरह मिलानी चाहिए। अमेरिकन और बीटी किस्मों में प्रति हैक्टेयर 75 किलोग्राम नत्रजन तथा 35 किलोग्राम फास्फोरस व देशी किस्मों को प्रति हैक्टेयर 50 किलोग्राम नाइट्रोजन और 25 किलो फास्फोरस की आवश्यकता होती है। पोटाश उर्वरक मिट्टी परीक्षण के आधार पर देवें, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुवाई से पहले देवें। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा फूलों की कलियां बनते समय देवें।कपास की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधनकपास की खेती में बहुत ही कम पानी की जरूरत होती है, यदि फसल बारिश के मौसम में की गयी है तो इसे पहली सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, और यदि खेती बारिश के मौसम में नहीं की गयी है तो 45 दिन के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए।कपास के पौधे अधिक धूप में अच्छे से विकसित होते है इसलिए पहली सिंचाई करने के बाद जरूरत पड़ने पर ही इसकी सिंचाई करनी चाहिए किन्तु पौधों में फूल लगने के वक़्त खेत में नमी की उचित मात्रा बनी रहनी चाहिए जिससे पौधों के फूल झड़े नहीं, किन्तु अधिक पानी भी नहीं देना चाहिए इससे फूलों के ख़राब होने का खतरा हो सकता है । जब फूल से टिंडे बनने लगे तब खेत में 15 दिन के अंतराल में पानी देते रहना चाहिए, जिससे टिंडे का आकार बड़ा तथा पैदावार भी अधिक होती है।किसान भाइयों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नकपास की खेती के लिए कितना दिन पाला रहित होना चाहिए?पौधे के जीवित रहने और निर्बाध विकास को सुनिश्चित करने के लिए कपास की खेती के लिए विशेष रूप से लगभग 210 पाला रहित दिनों की आवश्यकता होती है।कपास 1 बीघा में कितना होता है?कपास उत्पादकों का दावा है कि एक बीघा जमीन पर 10,000 रूपए की लागत से 7 से 8 क्विंटल कपास का उत्पादन होता है।1 किलो कपास कितना होता हैं ?कपास के 1000 दानों का भार 70 ग्राम होता है। कपास की एक कलिका को बनाने में 3.4 लीटर पानी लगता है और एक किलो कपास उत्पादन में 7000 से 29000 लीटर पानी लगता है। कृषि सलाह