मक्का की उन्नत खेती (Makka Ki Unnat Kheti) Rajendra Suthar, February 27, 2024February 27, 2024 मक्का की उत्पादन क्षमता अधिक होने के कारण मक्का को फसलों की रानी खा जाता है। द्विपद संस्कृति के अनुसार मक्के का वैज्ञानिक नाम ज़िया मेयस है। मक्का पोएसी नामक परिवार से संबंधित है। मक्का का मानव आहार (25%) के साथ-साथ कुक्कुट आहार (49%), पशु आहार (12%), स्टार्च (12%), शराब (1%) तथा बीज (1%) के रुप में किया जाने लगा है। इसके अलावा मक्का तेल, साबुन इत्यादि बनाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। मक्का से भारतवर्ष में 1000 से ज्यादा उत्पाद तैयार किये जाते हैं। मक्का का चूरा (Corn Cake) धनवान लोगों का मुख्य नाश्ता है। छोटे बच्चों के लिए मक्का का चूरा पौष्टिक भोजन है तथा इस के दाने को भूनकर भी खाया जाता है। शहरों के आसपास मक्का की खेती हरे भुट्टों के लिये मुख्य रूप से की जाती है। आजकल मक्का की विभिन्न प्रजातियों को अलग-अलग तरह से उपयोग में लाया जाता है। मक्का को पॉपकॉर्न, स्वीटकॉर्न, एवं बेबीकॉर्न के रूप में पहचान मिल चुकी है।भारत में लगभग 75% मक्का की खेती खरीफ के मौसम में होती है। गतवर्ष (2008-09) में 81.7 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में मक्का उगायी गई जिसका उत्पादन 197.3 लाख टन तथा उत्पादकता 2414 कि.ग्रा./है. थी। विश्व के कुल मक्का उत्पादन में भारत का 3% योगदान है। अमेरिका, चीन, ब्राजील, एवं मैक्सिको के बाद भारत का पाँचवा स्थान है। सभी खाद्यान्न फसलों की तरह मक्का भी भारतवर्ष के लगभग सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर तथा उत्तर पूर्वी राज्यों में मक्का मुख्यतया उगायी जाती है।मक्का की उन्नत किस्मेंमक्का की किस्में अवधि औसत उत्पादन क्षमता डी.एच.एम.-107 एवं 109 पीला रंग दाना,पी.ई.एच.एम.-1 एवं पी.ई.एच.एम.-2 नारंगी रंग दाना,प्रकाश पीला रंग दाना, पी.एम.एच.-5 नारंगी दाना,प्रो.368,एक्स -3342,डी.के.सी.- 7074 पीला, नारंगी दाना,जे.के.एम.एच. – 175 पीला एवं नारंगी दाना,बायो – 9637,के.एच. – 5991शीघ्र पकने वाली (अवधि 85 दिन से कम)औसत उत्पादन क्षमता 40 से 50 क्वि./हेक्टरएच.एम.-4 नारंगी दाना, एच.एम.-10 पीला दाना,एच.एम.-10 पीला दाना,एच.क्यू.पी.एम.-1 पीला दाना,एच.क्यू.पी.एम.-4 पीला दाना,एच.क्यू.पी.एम.-5 नारंगी दाना,पी.- 3441 नारंगी दाना,एन.के.-21 नारंगी,के.एम.एच. – 3426 नारंगी,के.एम.एच. – 3712 पीला,एम.एन.एच. – 803 पीला,बिस्को – 2418 पीला,बिस्को – 111 नारंगी,मध्यम अवधि (95 दिन से 85 दिन) औसत उत्पादन क्षमता 50 से 70 क्वि./हेक्टरएच.एम. – 11,डेक्कन – 105 पीला, गंगा – 11 पीला,डेक्कन – 103 पीला, डेक्कन – 101 पीला, एच.क्यू.पी.एम. -4 पीला, त्रीशुलता पीला, नारंगी दाना, बिस्को – 855 पीला, नारंगी, एन.के. – 6240 पीला, नारंगी दाना, एस.एम.एच.-3904 पीला, प्रो – 311,बायो – 9681,सीड्टैक – 740,सीड्टैक – 2324,देरी से पकने वाली (95 दिन से अधिक)औसत उत्पादन क्षमता 60 से 80 क्वि./हेक्टरमक्का की खेती के लिए आवश्यक जलवायु एवं मृदाजलवायु – आमतौर पर मक्का की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु पर की जा सकती है परन्तु उष्ण क्षेत्रों में मक्का की वृद्धि, विकास व उपज अधिक पाई जाती है। यह गर्म ऋतु की फसल है। मक्के की फसल के लिए रात व दिन का तापमान ज्यादा होना चाहिए। मक्के की फसल को शुरुआत के दिनों से भूमि में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। जमाव के लिए 18 से 23° से. तापमान तथा वृद्धि व विकास अवस्था में 28° से. तापमान उत्तम माना गया है।मृदा – मक्का की खेती सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है, परंतु मक्का की अच्छी पैदावार एवं उत्पादकता के लिए दोमट व मध्यम से भारी मिट्टी जिसमें पर्याप्त मात्रा में जीवांश तथा उचित जल निकास का प्रबंध हो, का उपयोग करना चाहिए। है। लवणीय एवं क्षारीय भूमियां मक्का की खेती के लिए उपयुक्त नहीं रहती।मक्का की खेती का समयमक्का की बुवाई वर्ष भर कभी भी खरीफ, रबी एवं जायद ऋतू में कर सकते है लेकिन खरीफ ऋतू में बुवाई मानसून पर निर्भर करती है। अधिकतर राज्यों में जहां पर सिंचाई सुविधा उपलब्ध हो वहां पर खरीफ में बुआई का उपयुक्त समय मध्य जून से मध्य जुलाई है। पहाड़ी एवं कम तापमान वाले क्षेत्रों में मई के अंत से जून के शुरूआत में मक्का की बुआई की जा सकती है।मक्का बोने की विधी (Makka bone Ki Vidhi)खेत की तैयारी – मक्का की बुवाई से पहले भूमि की तैयारी के लिए हैरो द्वारा एक गहरी जुताई तथा कल्टीवेटर से दो जुताई पर्याप्त रहती हैं। खेत को समतल करने के लिए खेत में पाटा लगाए जिससे ढेले भी टूट जाते हैं। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में फसल की बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए। इसके लिए अंतिम जुताई के तुरंत बाद निर्धारित दूरी पर मेड़ों बनानी चाहिए तथा मेड़ बनाने के तुरंत बाद बुआई करनी चाहिए क्योंकि देरी से बुवाई करने पर मेड़ों से नमी का हास होता रहता है जो अंकुरण को प्रभावित करता है। मक्के में कतार से कतार का अन्तर काफी होता है। अतः कम्पोस्ट खाद, गोबर खाद या केंचुआ खाद का प्रयोग कतारों में करना लाभप्रद होगा।बुवाई – बीज को सर्वप्रथम इमिडाक्लोप्रिड नामक दवाई (2 मिली प्रति कि.ग्रा. बीज की दर) से उपचारित करें इसके उपरांत 2 ग्राम थायरम एवं 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम से उपचारित करें। जिससे फसल में अंकुरण व शुरू की वृद्धि की अवस्था में कीड़ो व बीमारियों का प्रकोप कम रहता है। सिंचित क्षेत्रों में मक्का की बुआई मानसून आने के 10-15 दिन पहले कर देनी चाहिए। वर्षा आधारित क्षेत्रों में सामान्यतः वर्षा के आने पर ही मक्का की बुवाई की जाती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मेड़ बनाकर उनके ऊपर मक्का की बुआई करनी चाहिए तथा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में कुंड में बुवाई करनी चाहिए। मक्का में कतार से कतार 18 खरीफ फसलों की खेती एवं पौधों से पौधों की दूरी 75 सें.मी. x 20 सें.मी. या 60 सें.मी. x 25 सें.मी. रखते हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्र की बुवाई के लिए 12-15 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त रहता है। यदि मक्का की बुवाई बेबी कॉर्न व पॉप कार्न के लिए की जा रही है तो पौधों के बीच की दूरी 60 सें.मी. X 20 सें.मी. उचित रहती है।बीज उपचार –बीजोपचार बीजों की अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है एवं बीज जनित फंफूंदजन्य बीमारियों से सुरक्षा होती है।फंफूंदनाशक दवा का नाम एवं मात्रा – बीमारी के बचाव हेतु कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम एवं थायरम 2 ग्राम/किग्रा बीज अथवा वीटावेक्स पावर 1 ग्राम/किग्रा की दर से उपचार करे। कीट प्रबंध के लिये एमीडाक्लोप्रीड 70 (डब्ल्यू एस) 5 ग्राम/किग्रा बीज से उपचारित करे जिससे पौधे 30 दिन तक सुरक्षित होगें।दवा उपयोग करने का तरीका – बीजों को पहले चिपचिपे पदार्थ से भिगोकर दवा मिला दें फिर छाया में सुखाएं और 2 घंटे बाद बुवाई करें।जैव उर्वरक का उपयोग – जैव उर्वरक पौधों को पोषक तत्व उपलब्ध कराने का कार्य करते हैं।3 कि.ग्रा. पी.एस.वी. एवं 3 कि.ग्रा. एजोटोबेक्टर को लगभग 100-150कि.ग्रा.गोबर की खाद में मिलकार बुवाई के पहले छिडकाव करने से अच्छे परिणाम मिलते हैं ।यदि मिट्टी में जीवांश पदार्थ की कमी हो तो बुवाई से लगभग 15-20 दिन पहले 6-8 टन/हैक्टेयर की दर से गोबर की खाद खेत में डालकर मिट्टी में अच्छी प्रकार से मिलाना चाहिए। सामान्यतः पूर्णकालिक किस्मों के लिए 120-150 कि.ग्रा./हेक्टेयर नाइट्रोजन तथा मध्यम व जल्दी पकने वाली किस्मों के लिए क्रमशः 80-100 व 60-80 कि.ग्रा./हेक्टेयर नाइट्रोजन पर्याप्त होती है। जबकि 60 कि.ग्रा. फॉस्फोरस व 40 कि.ग्रा./हेक्टेयर पोटैशियम सभी वर्गों की किस्मों के लिए आवश्यक होती है। यदि मक्का की बुवाई बलुई मिट्टी में की जाती है या खेत में जिंक की कमी हो तो 25 कि.ग्रा./हैक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट को खेत में बुवाई से पूर्व डालना चाहिए। नाइट्रोजन की एक-चौथाई तथा फॉस्फोरस, पोटेशियम व जिंक सल्फेट की पूरी-पूरी मात्रा बुवाई से पहले अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला दें। नाइट्रोजन की शेष बची मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर घुटने तक ऊंचाई वाली व झंडे निकलने से पहली अवस्था पर खड़ी फसल की पंक्तियों में बिखेर दें। यदि मिट्टी बलुई हो तो नाइट्रोजन को चार बराबर भागों में बांट कर बुवाई, घुटने की ऊंचाई वाली अवस्था, झंडे निकलने से पहले तथा झंडे निकलने वाली अवस्था पर डालना चाहिए।जल प्रबंधन – आमतौर पर एक अच्छी और उन्नत फसल की पैदावार सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई की सुविधा होनी चाहिए जिससे किसी भी अवस्था में फसल को पानी की कमी न रहे। झंडे निकलने से भुट्टों में सिल्क निकलने की अवस्था क्रांतिक मानी जाती है। इन अवस्थाओं में खेत में नमी की कमी न हो। सामान्यतः यदि वर्षा की कमी हो तो क्रांतिक अवस्थाओं (घुटने तक की ऊंचाई वाली अवस्था झंडे निकलने वाली अवस्था, दाना बनने की अवस्था) पर एक या दो बार सिंचाइयां कर देनी चाहिए जिससे उपज में गिरावट न हो। सिंचाई के साथ-साथ मक्का में जल निकास भी अत्यंत आवश्यक है। यदि मक्का मेड़ों पर बोई गई है तो खेत के अंत में जल निकास का समुचित प्रबंध होना चाहिए। समतल बुवाई की परिस्थिति में भी खेत में जल एकत्र न होने दें।जकबमक्का की फसल में खरपतवार नियंत्रण –खरीफ के मौसम में खरपतवारों की अधिक समस्या देखी गई है, जो फसल से पोषण, जल एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं जिसके कारण उपज में 40-50 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। मक्का की फसल के प्रमुख खरपतवार निम्नलिखित हैं:संकीर्ण पत्तियों वाले खरपतवार – सावा (इकाइनोक्लोआ कोलोनम), गूज घास (एकाकन रेसीमोस), झिंगारी / कोदो (एल्यूसाइना इंडिका), वाइपर घास (डाइनेब्रा रेट्रोक्सा), मकरा (डेक्टाइलोक्टेनम इजिप्टिका), चिरचिटा (सिटेरिया वीरिडिस), बनचरी (सोरगम हेलपेन्स), बन्दरा (सिटेरिया ग्लौका), दूब (साइनोडान डेक्टाईलॉन), नरकुल (फ्रेग्माइटिस कर्का) तथा मोथा (साइपरस स्पिसीज)।चौड़ी पत्तियों वाले खरपतवार – कुन्द्रा घास (डाइजेरा आरवेंसिस), चौलाई (ऐमेंरेन्थस स्पिसीज), साटी (ट्राइएंथिमा पोश्चुलेक्सट्रम), कनकौवा (कोमेलाइना बेंगालेन्सिस), हजारदाना (फाइलेन्थस निरूराई), जंगली जूट (कोरकोरस एक्टून्गूलस), सफेद मुर्गा (सिलोसिया आर्जेन्शिया), मकोई (सोलेनम नाइग्रम), हुलहुल (क्लिओम विस्कोसा) तथा गोखरू (ट्राइबूलस टेरेसट्रिस)।सेजेज – मोथा (साइप्रस रोटेन्डस), यलो नटसेज (साइप्रस एस्कुलेन्टस)।मक्का की अच्छी उपज लेने के लिये समय रहते खरपतवारों का नियंत्रण अतिआवश्यक है। आजकल शाकनाशियों का प्रयोग बढ़ने लगा है क्योंकि बरसात के दिनों में निराई-गुडाई के लिये समय भी कम मिल पाता है, और निराई-गुड़ाई कई बार करनी पड़ती है। अतः खरपतवारनाशी के प्रयोग से वर्षा ऋतु में लाभदायक परिणाम मिलते हैं। शाकनाशी रसायनों में एट्राजीन या ट्रेफाजीन (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) के प्रयोग से एक वर्षीय घास तथा चौड़ीपत्तियों वाले, दोनों ही प्रकार के खरपतवारों का नियंत्रण हो पाता है, लेकिन दूब, मोथा, केना आदि खरपतवार इससे नहीं मरते। अतः इनको खुरपी से निराई करके नियंत्रण किया जा सकता है।एट्राजीन की मात्रा भूमि के प्रकार पर निर्भर करती है जो हल्की मिट्टियों में कम तथा भारी मिट्टियों में अधिक होती हैं। प्रति हैक्टेयर लगभग 1.0 से 1.5 कि.ग्रा. एट्राजीन की आवश्यकता होती है जिसको लगभग 600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरन्त बाद (खरपतवार निकलने से पूर्व) छिड़काव करना चाहिए। मृदा की सतह पर छिड़काव करते समय नमी का होना अतिआवश्यक है। छिड़काव करने वाले व्यक्ति को छिड़काव करते समय आगे की बजाय पीछे की तरफ बढ़ना चाहिए ताकि मृदा पर बनी एट्राजिन की परत ज्यों की त्यों रहे। अच्छे वायुसंचार तथा बचे हुए खरपतवारों को जड़ से उखाड़ने के लिए एक या दो निराई की जा सकती हैं। निराई करते समय भी व्यक्ति को पीछे की ओर बढ़ना चाहिए ताकि मिट्टी में दवाब न आये तथा वायुसंचार अच्छा बना रहे।कटाई व उपज – मक्के जब भुट्टों को ढ़कने वाली पत्तियाँ पीली पड़ने लगें (दानों में 25-30 प्रतिशत नमी) तब मक्का की कटाई करनी चाहिए। अच्छा होगा अगर भुट्टों को शेलिंग (दाना निकालना) के पहले धूप में सुखाया जाए तथा दानों में 13-14 प्रतिशत नमी होने पर शेलिंग की जाए। शेलिंग ऊर्जा चलित मेज शेलर या हाथ से करनी चाहिए। उचित भण्डारण के लिये दानों को सुखाने की प्रकिया तब तक करनी चाहिए जब तक कि उनमें नमी का अंश लगभग 8-10 प्रतिशत न हो जाये और इन्हें वायुप्रवाहित जूट के थैलों में रखना चाहिए।मक्का में लगने वाले प्रमुख कीट एवं कीटनियंत्रणतना भेदक – खरीफ की फसल के दौरान लगभग पूरे देश में मक्का तना भेदक (काइलो पार्टेलस) का लारवा मुख्य रूप से हानिकारक होता है। तना भेदक पतंगे पत्तियों पर अंडे देते हैं। इनकी सूंडी गोभ में घुसकर पौधे को नष्ट कर देती हैं। पौधा यदि 20 से 25 दिन तक बच जाए तो उसमे तना भेदक के लिए प्रतिरोधक क्षमता प्रबल हो जाती है। अगर तना भेदक का प्रकोप अधिक हो तो इसकी रोकथाम के लिए पौध जमने के 10-12 दिन के पश्चात 2 मि.ली. (35 ई. सी.) इन्डोसल्फान प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए या गोभ में उचित जगह पर कार्बोफ्यूरान 3 जी डालना चाहिये या पौध जमने के 10-12 दिन के पश्चात प्रति हैक्टेयर 8 ट्राइकोकार्ड (ट्राइकोग्रेमा चाइलोसिस) रिलीज करने से भी इनकी रोकथाम की जा सकती है।दीमक – दीमक तने के साथ सुरंग बनाकर पौधों को नष्ट कर देती है। ग्रसित पौधा हाथ से खींचने पर आसानी से बाहर आ जाता है व खोखली जड़ों में मिट्टी नज़र आती है। दीमक के प्रकोप वाले क्षेत्रों में क्लोरपाइरीफास से उपचारित बीजों का प्रयोग करना चाहिए। पहली फसल के अवशेष खेत में नहीं रहने देने चाहिये। हल्का पानी लगाने के बाद फिप्रोनिल के दाने उचित जगह पर डालने चाहिए।व्याधियों (बीमारीयों) का प्रबंधन – खरीफ के मौसम में मक्का की फसल में देश के विभिन्न भागों में अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग जाती हैं। अगर इनका उचित प्रबंधन न किया जाए तो इससे फसल की उपज पर विपरीत प्रभाव पडता है।बैंडेड लीफ एवं शीथ ब्लाइट – नाम के अनुसार इस रोग में पत्तों व शीथ पर चौड़ाई के रूख स्लेटी या भूरे रंग की गहरी पट्टियाँ दिखायी देती हैं। उग्र अवस्था में भुट्टे भी क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। भूमि को छूने वाली 2-3 रोगी पत्तियों को शुरू में ही तोड़ देने से एंव 30 से 40 दिन की फसल पर 10 ग्राम राइजोलेक्स 50 डब्ल्यू. पी. प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से रोग की रोकथामकी जा सकती है तथा स्यूडोमोनास फ्ल्यूरोसेंस 16 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर बीजोपचार करने से भी रोग की रोकथाम की जा सकती है।टरसिकम लीफ ब्लाइट – इसमें रोगी पौधों की निचली पत्तियों पर लंबे चपटे स्लेटी या भूरे रंग के धब्बे दिखायी देते हैं जो धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ते हैं। यह बीमारी पहाडी तथा प्रायद्वीपीय भारत में खरीफ के मौसम में ज्यादा फैलती है। इसके उपचार के लिए 8-10 दिन के अन्तराल पर एक लीटर पानी में 2.5 से 4.0 ग्राम मेनेब / जिनेब मिलाकर छिडकाव करना चाहिए। जहाँ पर इस रोग का प्रकोप अधिक हो उन क्षेत्रों में रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे कि प्रो-345, बायो-9636, पूसा अर्ली हाईब्रिड-5, प्रकाश, जे. एच.-10655 एवं एम.सी.एच.-117 उगानी चाहिए।मेडिस लीफ ब्लाइट – पत्तियों की शिराओं के बीच में पीले भूरे अंडाकार धब्बे बन जाते हैं जो बाद में लंबे होकर चौकोर हो जाते हैं। इनसे पत्तियाँ जली हुई दिखाई देती हैं। रोग के लक्षण दिखते ही 8-10 दिन के अन्तराल पर एक लीटर पानी में 2.4 से 4. 0 ग्राम डाइथेन एम-45/जिनेब मिलाकर छिड़काव करें। जहाँ पर इस रोग का प्रकोप अधिक हो उन क्षेत्रों में रोग प्रतिरोधी किस्में खरीफ में मक्का की उन्नत खेती जैसे कि प्रो-324, आई सी आई-701, बायो-9636, पूसा अर्ली हाइब्रिड-5, प्रकाश, जे एच-10655 एवं जे के एम एच-1701 उगानी चाहिए।पोलीसोरा रस्ट – मांझर बनते समय नमी अधिक होने पर पत्तियों की दोनों सतहों पर गोल, लंबे, सुनहरे या गहरे भूरे रंग का पाउडर बिखरा दिखायी देता है जो बाद में भूरे काले रंग का हो जाता है। रोग के प्रथम लक्षण दिखते ही 15 दिन के अन्तराल पर एक लीटर पानी में 20 से 25 ग्राम डाइथेन एम-45 मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।मक्के के पुष्पन के पश्चात् वृन्त सड़न (पी.एफ.एस.आर.) – यह रोग समय पर बुवाई (10 से 20 जुलाई के मध्य में) करने से उत्तर भारतीय क्षेत्रों में कम फैलता है। अच्छे जल निकास वाली भूमि में पौधों की संख्या प्रति हैक्टेयर पचास हजार से कम रखने पर भी यह रोग कम फैलता है। फूल आते समय फसल को पर्याप्त मात्रा में जल की आपूर्ति होने से तथा विशेष रूप से पोटाश के स्तर को 80 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक बढ़ाकर मृदा उर्वरता के संतुलन को बनाये रखने से रोग को कम करने में मदद मिलती है। रोग रोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।डाउनी मिल्ड्यू (मृदुल रोमिल आसिता) – बारिश के पहले बुवाई एवं रोग प्रतिरोधक किस्में जैसे कि प्रो-345, बायो-9636, पूसा अर्ली हाइब्रिड-5, प्रकाश, जे. एच.-10655 एवं एन. इ. सी. एस.-117 उगाने से भी रोग की रोकथाम की जा सकती है। एप्रोन 35 एस. डी. का 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें तथा सिस्टेमिक फफूंदनाशी जैसे कि मेटालैक्सिल, रोडोमिल 25 डब्ल्यू. पी. का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देने से पहले करने पर रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है।अन्तः फसल – अन्तः फसल एक तरह का बीमा है, जो किसान को जैविक व अजैविक आपदाओं से बचाता है मक्का के साथ कम अवधि में पकने वाली दलहनी फसलें जैसे मूँग, उड़द, लोबिया, अरहर, तिलहनी फसलें जैसे मूँगफली, सोयाबीन तथा सब्जियाँ एवं फूल आदि फसलें ली जा सकती हैं। अन्तः फसली खेती में मुख्य फसल की निर्धारित उर्वरक की मात्रा के अलावा अन्तः फसल की निर्धारित उर्वरक मात्रा का प्रयोग भी करना चाहिए। मक्का तथा अन्तः फसल की दो-दो या मक्का की दो एंव अन्तः फसल की एक पंक्ति बोनी चाहिए। खरपतवारों का नियन्त्रण अन्तः फसल में निराई गुड़ाई से करना चाहिए। शाकनाशी रसायनों के इस्तेमाल से अन्तः फसल पर बुरा प्रभाव पडता है।किसान भाइयों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नमक्का बोने का सही समय क्या है?रबी मक्का की उपयुक्त बुआई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक का है।1 एकड़ में कितना मक्का बोया जाता है?एक एकड़ में लगभग 40 क्विंटल तक उत्पादन किया जा सकता है।मक्का का बीज कितने दिन में अंकुरित होता है?कॉर्न सीड्स को अंकुरित (जर्मिनेट) होने में 7-14 दिन का समय लगता है। अंकुरित हुए पौधे लगभग 12 से 15 दिन के बाद 5 से 7 इंच के हो जाते हैं। कृषि सलाह